प्रेमचंद और आधुनि हिंदी का विकास
प्रेमचंद ,मुंशी जी
,नवाब राय ,धनपत राय आप चाहे जिस नाम से भी कलम के इस जादूगर को याद करें उनके
कथ्य और कथानक आपके आस पास ही विचरण करती नज़र आएगी | हल्कू और गोबर जैसे पात्र अभी
भी गाँव की तंग गलियों में किसी साहूकार से ब्याज मांगते निर्विकल्प भाव में मिल जायेंगे|
मिस्टर मेहता का फिटन अब बड़ी गाड़ियों में
बदल गया है ,पर खुद मिस्टर मेहता नहीं बदले ,वो अब जमींदारों की ग्राम्य नाटकों की
जगह रोटरी या लायंस क्लब में जाम चढाते अनिवार्य रूप से मिल जायेंगे | मुंशी
प्रेमचंद की प्रासंगिगता का कोई पैमाना आज तक बना ही नहीं है शायद ,मुंशी जी
पराधीन भारत में स्वतंत्र लेखक बने रहे और उनकी रचनाओं की ताज़गी जस की तस बनी हुई
है |
मुंशी जी ने अपने जीवन काल में दो तरह की क्रांतियों का सूत्रपात किया
,पहला की उन्होंने भाषा को संवाद का विषय के रूप देखा विवाद के रूप में नहीं
,उर्दू से अपनी रचनाओं का सूत्रपात कर तथा उसमे राष्ट्रवादिता को प्रमुखता से
स्थान देकर उन्होंने जो अपनी छवि बनायी जो आज भी नए रचनाकारों के लिए मील का पत्थर
है ,आप सोजे वतन को पढ़ें या मानस की किसी श्रृंखला को भाषा मात्र संवाद तक सीमित
हो कर रह गयी और कथ्य का आशय दीर्घ और सुदीर्घ होता चला गया |
वास्तव में प्रेमचंद जी
की अपनी ही एक भाषा है ,अपनी ही एक शैली है ,उर्दू और हिंदी दोनों को प्रेमचंद ने
अपनी कलम से एक नया विस्तार दे डाला |
मुख्यत: प्रेमचंद जी की रचनाएँ
ग्राम्य परिवेश में सिमटी ज़रूर थीं पर उनकी भाषा का विस्तार प्रगाढ़ था |जहाँ ज़रुरत
हुई ग्राम्य शैली में उनके कथानक बात करते आये ,जहाँ ज़रुरत हुई मौलवी साहब उर्दू में शराबबंदी के लिए शेखू को दीन का
वास्ता देते नज़र आये वहीँ पंडित जी घीसू को शराब की जगह चरणामृत लेने को प्रेरित
करते दिखे |
वास्तव में हिंदी का पूरा विस्तार
हमें मुंशी जी के गद्यों में देखने को मिल जाती है ,न संस्कृत निष्ठ न उर्दू निष्ठ
,भाषा सहज ,सरल और सुग्राह्य ......
उस वक्त चल रहे स्वाधीनता आन्दोलन ने
तो उनपर प्रभाव डाला ही उसके सामानांतर सामाजिक आन्दोलनों को प्रेमचंद जी ने अपनी
आवाज़ दी , जाती आधारित वर्ण व्यवस्था का शिकार बना हल्कू चमार ,जो अपने देव तुल्य
पंडित जी को प्रसन्न करने के लिए अपनी जान तक दे देता है ,और उसके देवता उसके
पैरों में रस्सी बांध उसके मृत शरीर जानवर
सरीखे खींच गावं के बाहर ले जा कुत्तों का आहार बना देते हैं |
प्रेमचंद जी को शायद आभास भी
न रहा हो की स्वतंत्रता के बाद भी उनका चमार पंडितों की दुआओं से जीवित बचा रहेगा
|अंत में यह लिखना की उनके कथानक अब भी उतने ही प्रासंगिक हैं ,मुझे खुद ही
मर्माहत किये जा रहा है .........बरबस |
प्रेमचंद ने अपने कहानियों
में अपनी और हम सब साहित्यकारों की पीड़ा बार बार उजागर की ,नए तालीम और सभ्यता
वाले युवक अब हिंदी को कुत्सा की नज़र से देखते थे उस ज़माने में भी और अब भी , मेरे
लिए हिंदी का तात्पर्य स्वदेशी बोली से है | हम हिंदी वाले मोर्डन बन ही नहीं सके
|
हिंदी के लेखक को उन्होंने
मिल का मजदूर कहा ,जिसके पास चाय के पैसे भी नहीं होते पर उसमे आत्मस्वाभिमान इतना
भरा होता है की राजाजी के उस अनुरोध को वह ठुकरा देता है ,जहाँ उसे मिटों के हिंदी
अनुवाद को अपना बना कर पेश करना था और विलायती साहित्य की तारीफ करने वाली सभ्य
मंडली की हाँ में हाँ मिलाना होता |