Sunday, January 22, 2012

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1 comment:

  1. अब याददाश्त को खंगाल रहा हूँ , वहाँ जो लिखा वो बदहाली की भेंट चढ़ गया .

    हम सब बहाने से जीते हैं . जिंदगी मिली अपनी थी , बहाने सी किसी और की जी ली .

    मेरे मित्र अनीस अहमद सिद्दीकी ने ३० वर्ष पूर्व एक बात कही थी - इस मुल्क में नेता होने और मदारी होने में ज्यादा फर्क नहीं हैं . जहाँ भी डमरू बजाओ भीड़ इकट्ठी हो जाती है . अब आप भीड़ का हिस्सा हैं या बन्दर क्या फर्क पड़ता है .

    बचपन में कुछ साल मिर्ज़ापुर में रहा था , वहाँ एक स्थानीय कहावत है - "मिर्जापुरी , बगल में छूरी , खाएँ सतुआ बताएँ पूरी ." अब यह स्थानीय है इसकी ताकीद के लिए दी , और मैं मिर्ज़ापुर में रहा हूँ इसे पढ़कर कोई भी सत्यापन कर देगा .
    पर मौजूं कहावत मिर्ज़ापुर की जो उदधृत करना चाहता था वह है - " लट्ठ खाएँ तो खाएँ तमाशा घुस के देखेंगे "
    महाराष्ट्र में तो कुछ-कुछ होता है - उसे तमाशा ही कहते हैं .

    हमारे आप में बराबरी नहीं है , पर सिद्ध करने के लिए छोटी लकीर के बगल में बड़ी लकीर खींचने में होड़ लगी है . अब इतनी लकीरें खींची जायेंगी तो दरारें तो पड़ेंगी न मेरे भाई .

    आप पाँच वक्त नमाज पढते हैं तो हमें पाँच वक्त कुछ करना पड़ेगा . आप मस्जिदों में जगह नहीं है तो सड़क पर नमाज़ पढ़ने आ जाते हैं , तो हम महाआरती करेंगे . आप जुम्मा-जुम्मा तो हम गुरुवार. आप साहित्यकार खामखाँ लिखते हैं नकलची बन्दर होता है. आज इस टिप्पणी में बन्दर बार बार के घूम फिर के क्योँ आ रहा है , कोई खास वजह ?

    अब बन्दर के हाथ टिप्पणी का उस्तरा थमा देंगे तो क्या करेगा ? हमारे भाई अनीस बात-बात में मार्के की बात कह जाते थे . एक दिन बोले "यहाँ एक हिंदू ही हिन्दुओं का और एक मुसलमान मुसलमानों का नेता हो सकता है ." आप को चोट लगी यह पढ़कर ? गंगा-जमुनी संस्कृति ?? दुर . मुँह छुपाने को कोई जगह हो तो ढूंढ लें .

    आस्था की बात नहीं है , दुकानदारी की है . मैं बार बार इस बात को दोहरा रहा हूँ . औद्योगिक क्रांति का सबसे बड़ा दुष्प्रभाव यह है की इसने आदमी को बाज़ार और ग्राहक बना दिया है . अब शिक्षा , धर्म प्रोडक्ट्स हो गए हैं और इनकी पैकेजिंग हो रही है .

    सूत न कपास जुलाहों में लठम् - लट्ठा .

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