हमारे पास ५ ज्ञानेन्द्रियाँ है चक्षु,कर्ण ,नासिका ,जिह्वा और त्वचा । लेकिन एक अपर मन भी है ।
मन महा - इंद्रिय , जिस व्यक्ति को वासना वशीभूत करती है वह उन्हें ५ ज्ञानेंद्रियो से भोगता है । लेकिन भोग भोगने से नहीं भोगे जाते ,भोग की कोई निश्चित परिसीमा नहीं है ।
ययाति के १०० पुत्र थे । जब मृत्यु का समय आया तो यमदूत उनके प्राण लेने आये ,ययाति कंपन करने लगा और उनसे विनय की के मेरे प्राण मत लीजिए ,मैंने ठीक से भोग नहीं भोगा है कुछ समय और दो ताकि ठीक से भोगों को भोग सकूँ ।
यमदूत ने कहा यह संभव नहीं है तुम्हें तो चलना ही होगा ,ययाति गिड़गिड़ाने लगा और कहा बस एक सौ साल और ,यमदूत ने कहा ठीक है पर अपने उलट अपने पुत्रों में से किसी एक को भेजना होगा ।
ययाति अत्यंत प्रसन्न हुआ । उसने अपने सबसे ज्येष्ठ पुत्र को बुलाया और सारी बात विस्तार से बताई । उस ज्येष्ठ पुत्र ने विचार किया की इनकी मृत्यु निकट है फिर तो भोग भोगने की मेरी अवस्था है उसने यमदूत के साथ जाने से इंकार कर दिया ,अन्य पुत्रों ने भी ऐसा ही किया ,परंतु कनिष्ठ पुत्र यमदूत के साथ जाने को तैयार हो गया । यमदूत को भारी आश्चर्य हुआ ।
यमदूत ने कहा तुम तो अभी बालक हो ,भोग विलास की अवस्था तुम्हारी है तुम विलास करो ,क्यों जाना चाहते हो ? उस पुत्र ने कहा मैं समझ गया भोग भोगने से नहीं भोगे जाते ,जब पिता का मन परिपूर्ण नहीं हुआ तो मेरा क्या होगा ?
यह तो चलिए एक कथा है परंतु क्या यह सत्य नहीं ?
जिस व्यक्ति ने मन को खुली छूट दे दी उसकी वासना कभी पूर्ण नहीं होगी । कामनाओं को नियंत्रित करना है तो मन को नियंत्रित करना सीखना होगा,
जिस व्यक्ति का मन पर नियंत्रण हो जाये वह स्रटा के रूप में जीवन व्यतीत करता है,वह अपने ही शरीर को अकर्मण्य भाव से देखता है उसके सारे कर्म प्रमेय हो जाते हैं ,वह शून्य से शिखर की यात्रा करता है ,आत्मा और शरीर का भेद मिट जाता है
इस स्थिति में परम तत्व से अनायस ही जुड़ाव हो जाता है ,धर्म स्थापना उसके शरीर का एक मात्र निम्मित हो जाता है ।
जन्म मरण के बंधन से सर्वथा छूट जाता है ,पाप और पुण्य से वह विरक्त हो जाता है ,उसके शरीर के कण कण में शिव विराजमान होते हैं ,माया का नाममात्र भी उसके सूक्ष्म शरीर को छू नहीं पाती । वह जल में कमल के समान सांसारिक रूप में रहता है उसका रोम रोम ,रोआँ रोआंॅ परम तत्व से जुड़ जाता है ।
आगे फिर कभी
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MERE KUCH KALAM,APKE NAMM!