टाट के भीतर क्या है?
आज किसी ने मुझसे मेरी व्यंग शैली में सुधार लाने का विनम्र आग्रह किया ,हालाँकि उनकी विनती की शैली से " सुधर जाओ "की ध्वनि का आभास हुआ , खैर ,मुझे तो थाने के अन्दर साधू ,चोर ,उच्चकों में भी कोतवाल की छवि का ही एहसास होता है और बेटिकट रेल यात्रा के वक़्त हर काले कोट में यमराज का |
उन्होंने तो बस इतना ही कहा की आप "परोक्ष निरूपण" का उपयोग कर अपनी रचनाओं को अधिक प्रभावी बना सकते हैं ,और स्वयं के दीर्घायु होने की कामना कर सकते हैं !
परोक्ष निरूपण का अर्थ है ,किसी व्यक्ति या वस्तु की वास्तविक पहचान को किसी अन्य व्यक्ति या वस्तु के नाम से स्थानांतरित कर अपनी बात को रखना ,अर्थात अगर मुझे आज हाथी की प्रतिमा तो लिखना होगा को बिल्ली की प्रतिमा ,बहन जी की प्रतिमा को मौसी जी की प्रतिमा कहनी होगी |
तो ,आज बिल्ली -मौसी की प्रतिमाओं को आवरण से ढक दिया गया ,कहा गया की चुनाव -आचार संहिता में मतदाता गुमराह हो सकते हैं ,क्योकि मौसी जी की पार्टी का चुनाव चिन्ह है ,बिल्ली |
हो सकता है की हरेक व्यक्ति को दस्ताना पहनना भी अनिवार्य किया जाये क्योंकि एक प्रमुख पार्टी का चुनाव चिन्ह हाथ है ,हाथ और हाथी में केवल एक एक मात्रे का ही फर्क है ,ई लगाने से हाथ हाथी में बदल जाता है ,अतः चुनाव आयोग को हाथ के विषय में भी संज्ञान लेना चाहिए |वैसे अधिकतर लोग हाथ की जगह" पंजा -छाप "को ही कांग्रेस का चुनावचिन्ह मानते आ रहे हैं |शायद हाथ को परोक्ष निरूपण में पंजा कहा जाता हो ,पंजा समानार्थक शब्द है हाथ का ,उदहारण -"ख़ूनी-पंजा "|
एक और संभावना है की मूर्तियों को टाट में लिपटा देख बच्चों की जिज्ञासा प्रबल हो उठे और वो बार -बार वो एक ही प्रश्न कर अपने निरीह माता -पिता को परेशान करें -"टाट की भीतर क्या है ?" और झख मारकर उन्हें बताना पड़े की टाट के भीतर हाथी नहीं बिल्ली है |
लेकिन बाल-सुलभ चंचलता अनुपूरक प्रश्न भी कर सकती है की -इसे छुपा कर क्यों रखा गया है ,रामचंद्र जी ने भी चंदा मामा को लेकर ऐसा उत्पात मचाया की माता कौशल्या को दर्पण में चाँद को उतारना पड़ा ,लेकिन वो त्रेता युग था रामचंद्र जी को बहलाना आसान था . अब तो बच्चे ऐसे सीधे नहीं ,वो बिना देखे मानने वाले नहीं की असलियत क्या है हाथी या बिल्ली ,और उसे क्यों छुपाया जा रहा है ?
अगर उन्हें बताया गया की बिल्ली तुम्हे काट न ले इसीलिए उसे छुपा दिया गया है तो वे यह भी पूछ सकते हैं की फिर उन्हें जगह -जगह पर लगाया ही क्यों गया ?
जब हर घर में ऐसे प्रश्न उठेंगे तो जिसे नहीं भी मालूम होगा उन्हें भी बिल्ली के विषय में पता चल जायेगा ,और यह भी भी" हाथी -बिल्ली , हाथी -बिल्ली" एक नारे के रूप में लोगों के अवचेतन मन में न बैठ जाये और कहीं गलती से न चाहते हुए भी उसी चिन्ह पर मतदान कर दें ,गणित में कमजोर विद्यार्थी परीक्षा में वही लिखता जो गेस पेपर से कुछ देर पूर्व ही रटा हो ,बेचारे को आंकड़ा बदलना भी नहीं आता |
हो सकता हो सर्दिओं का ख्याल कर उन जीव प्रतिमाओं को टाट से लपेटा गया हो ,जैसे द्वारिकाधीश को हर मौसम के अनुपूप "श्रृंगार और वस्त्र " |
सारांश यह की टाट के भीतर परोक्ष निरूपण के चक्कर में अणु -बम को तो निरुपित नहीं कर दिया गया -और कहीं मतदान पेटी से "जिन्न "न निकल पड़े |
विश्व की सबसे खूबसूरत प्रतिमाओं में शुमार बहन जी की प्रतिमा और उनकी सवारी प्रतिमा को सांस्कृतिक जिज्ञासु जनों के आँखों से दूर रखना सांस्कृतिक अपराध है !अतः देर न हो जाये वर्ना पता चल जायेगा" टाट के भीतर क्या है" ?
अगर हमारी संस्थाएँ हर समय गंभीर रहें तो जीवन कितना नीरस हो जाएगा ?? इसलिए बीच बीच में उन्हें हास्यकर हास्यापद निर्णय लेते रहने चाहिए . अनुसंधान से भी ज्ञात हुआ है की हंसना स्वास्थ्य के लिए सहायक है . ऐसे निर्णय लंबे काल में देश की स्वास्थ्य खर्च में कमी भी लायेंगे . दूर की कौड़ी किसे कहते हैं नहीं पता पर दूरगामी निर्णय इसे कहते हैं . वैसे किसी ने सुझाव दिया अगर चिन्ह ऐसे हों जो साधारणतया कम पाए जाते हैं - जैसे हाथी की बजाये कंगारू तो इससे हमारे आस्ट्रेलिया जैसे देश से सम्बन्ध भी सुधरेंगे . हो सकता है फिर वो कभी - कभी हमारी क्रिकेट टीम को आस्ट्रेलिया में भी एक आध मैच जीत लेने दें .
ReplyDeleteआम-आदमी के हाथ के बजाये आम-बुद्धि (कामन-सेन्स ). जो चीजें कम दिखेंगी वह चुनाव को कम प्रभावित करेंगी . कमल के बजाये करंजी का फूल जो १२ वर्षों में एक बार खिलता है .
वैसे प्रभाव करने वाली चीजें प्रतिबंधित करनी ही हों तो कम्बल , साड़ी , देशी / विदेशी दारु , हरे -हरे नोट प्रतिबंधित करने चाहिए . जैसे किसी को मालूम ही नहीं चुनाव को क्या प्रभावित करती हैं .