Tuesday, November 22, 2011

सीता हरण


 हा जग एक बीर रघुराया। केहिं अपराध बिसारेहु दाया।।
आरति हरन सरन सुखदायक। हा रघुकुल सरोज दिननायक।।

हा लछिमन तुम्हार नहिं दोसा। सो फलु पायउँ कीन्हेउँ रोसा।।
बिबिध बिलाप करति बैदेही। भूरि कृपा प्रभु दूरि सनेही।। 

बिपति मोरि को प्रभुहि सुनावा। पुरोडास चह रासभ खावा।।
सीता कै बिलाप सुनि भारी। भए चराचर जीव दुखारी।। 

गीधराज सुनि आरत बानी। रघुकुलतिलक नारि पहिचानी।।
अधम निसाचर लीन्हे जाई। जिमि मलेछ बस कपिला गाई।।

सीते पुत्रि करसि जनि त्रासा। करिहउँ जातुधान कर नासा।।
धावा क्रोधवंत खग कैसें। छूटइ पबि परबत कहुँ जैसे।। 

रे रे दुष्ट ठाढ़ किन होही। निर्भय चलेसि जानेहि मोही।।
आवत देखि कृतांत समाना। फिरि दसकंधर कर अनुमाना।।

की मैनाक कि खगपति होई। मम बल जान सहित पति सोई।।
जाना जरठ जटायू एहा। मम कर तीरथ छाँड़िहि देहा।।

सुनत गीध क्रोधातुर धावा। कह सुनु रावन मोर सिखावा।।
तजि जानकिहि कुसल गृह जाहू। नाहिं अस होइहि बहुबाहू।।

राम रोष पावक अति घोरा। होइहि सकल सलभ कुल तोरा।।
उतरु देत दसानन जोधा। तबहिं गीध धावा करि क्रोधा।। 

धरि कच बिरथ कीन्ह महि गिरा। सीतहि राखि गीध पुनि फिरा।।
चौचन्ह मारि बिदारेसि देही। दंड एक भइ मुरुछा तेही।।

तब सक्रोध निसिचर खिसिआना। काढ़ेसि परम कराल कृपाना।।
काटेसि पंख परा खग धरनी। सुमिरि राम करि अदभुत करनी।।

सीतहि जानि चढ़ाइ बहोरी। चला उताइल त्रास थोरी।।
करति बिलाप जाति नभ सीता। ब्याध बिबस जनु मृगी सभीता।।

गिरि पर बैठे कपिन्ह निहारी। कहि हरि नाम दीन्ह पट डारी।।
एहि बिधि सीतहि सो लै गयऊ। बन असोक महँ राखत भयऊ।।

सीता हरण आत्मा की परमात्मा से बिछुड़ने की टीस है /हे राम !क्या भूल हुई हमसे जो तुमने हमे भुला दिया
हाय प्यारे ,,तुम तो हर एक की सुनते हो ,हाय रघुकुल के सूर्य मेरी तड़प को सुनो / हाय लक्ष्मण ,तुम्हे मैं दोष नहीं देती ,मेरा क्रोध ही मेरा शत्रु निकला /
   वैदेही के दो अर्थ हैं ,जनक (विदेह ) की पुत्री और जिसने अपने देह की सुध बिसार दी ,अतः आत्मा /सीता को व्याकुल देख सारी सृष्टी व्याकुल हो उठी /अगर सीता जो परमात्मा में विलीन थी ,जब वो बिछुड़ सकती है ,तो किसी भी साधक की साधना भंग हो सकती है /सिर्फ एक क्रोध परमात्मा से हमें अलग कर सकता है ,सीता ने राम पर पूर्ण भरोसा नहीं किया ,उन्होंने तर्क किया ,इश्वर पर तर्क ,परिणाम -इश्वर उनसे बिछुड़ गए /
                                       एक गिद्ध जिसे हर प्रकार से घृणित माना गया है ,जो अभक्ष भोगी है ,लेकिन परमात्मा में उसका यकीन है ,उसे सीता की पुकार सुनाई देती है ,रावण जो मोह का प्रतीक है ,जीने सीता को हर लिया है ,उस मोह से सीता को मुक्त करने की कोशिश करता है /गिद्ध जैसा ,बाहरी रूप में घृणित ,परन्तु इश्वर पर यकीन उसे इतना ऊँचा बना देती है की रावण जैसे प्रबल को ललकार सके / रावण को भी एक छण सोचने पर विवश होना पड़ा की जब राम की प्रिया को उसने हर लिया ,तो उसके बल को कौन चुनौती दे रहा है /लेकिन मोह को स्वयं ही हटाया जा सकता है ,कोई दूसरा किसी को सिर्फ प्रेरणा दे सकता है ,मिट सकता है ,मर सकता है ,पर इश्वर की प्राप्ति व्यक्ति की निजता है /अगर परमात्मा चाहे तो ही किसी की व्याकुलता ,मोह मिट सकता है ,दूसरा कोई उपाय नहीं /लड़ना खुद को ही पड़ेगा / हाँ जागृत व्यक्ति किसी को छटपता देख उसे निकलने का प्रयास ही कर सकता है /कभी -कभी इस प्रयास में उसे हारना पड़ता है ,लेकिन हारने के डर से वह लड़ना नहीं छोड़ सकता /वही साधुता है /वही कर्म-फल से आगे निकल पाता है /राम को सीता से पहले वही पा सकता है /


2 comments:

  1. Bahoot Achchha Translation Hai. Jaaki Rahee Bhavna Jaisee Prabhu Moorat Dekhi Tin Taisee

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MERE KUCH KALAM,APKE NAMM!